लोकगीत का अपना शास्त्र रहा है, लोकसंगीत में अनगढ़ता और खुरदुरापन ही उसका सौंदर्य होता है...
होली को चैती की तरह नहीं गाते, चैती को सोहर की तरह नहीं गाते, सोहर निर्गुण की तरह नहीं गाया जाता, गोड़उ का राग अलग होता है, धोबिया गीत अलग, खिलौना अलग होता है| जोग सहाना का राग अलग, विवाह के गीत में हर विध में धुन-राग बदल जाती है गांव की गीतहारीन महिलाएं का छठ का गीत बिल्कुल अलग राग-धुन रखता है, पराती और पचरा का राग बदल जाता है, सदियों और पीढ़ियों से लोक का अपना शास्त्र रहा है, अलिखित होने के बावजूद यह तेजी से बड़े दायरे में फैलता रहा है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के मानस में रचता-बसता भी रहा है, यह अनगढ़ रहा है इसलिए लोकसंगीत में अनगढ़ता हो, खुरदुरापन हो तो उसे बहुत परफेक्ट करने की जरूरत नहीं, लोकसंगीत में अनगढ़ता और खुरदुरापन उसका सौंदर्य होता है|