न वो निर्भया थी, न ये निर्भया हैं...
न वो निर्भया थी, न ये निर्भया हैं
वे सब की सब पीड़िता थीं और पीड़िता हैं
उस रात एक थी बस के अन्दर
इस बार दिन दहाड़े गन्ने के खेतों में
भयभीत माएं, बहने, भाई, बाप, सब, मौत के डर से खामोश थे
उनके सामने पीड़िता के साथ सामूहिक बलात्कार होता गया
दिन रात भतभीत पीड़िताएँ हवस का शिकार होती रहीं मरती रहीं
दिल्ली बम्बई की सड़कें जोश में उछाल लगाती हैं
यदि एक के साथ बुरा होता है
परन्तु जब जब सामूहिक सार्वजनिक तौर पर
पूरी की पूरी बस्तियों के साथ बलात्कार होता है
तब वे केवल संख्या बन जाती हैं
जैसे ड्रोन की बमबारी के बाद जले कटे मांस के अम्बार
संख्या बन जाते हैं
न उनके लिए मोमबत्तियों वाला प्रदर्शन होता है
न ही उनके हत्यारों और बलात्कारियों की सजा
चुनाव का मुद्दा बन बन पाती है
जो बच गयीं हैं वे भयभीत हैं
उनके लिए गोवा पुलिस की टोली नहीं आती है
उनके लिए तेजपाल वाली तेजी नहीं दिखाई देती है
दमन का शिकार होने वाली दामिनी कैसे हो सकती है?
मणिपुर में, गुजरात में, मुज़फ्फरनगर में...
दबी दबी सी सिसकियों में
न वो निर्भया थी, न ये निर्भया हैं
वे सब की सब पीड़िता थीं और पीड़िता हैं
सरकार चाहती है मामले रफ़ा दफ़ा हो जाएँ
कोई सड़क बना दी जाए
ताकि विकास को तरसती आँखें
पगडंडियों, खेतों, गांवो के खून के धब्बे भूल जाएँ
जोशीले युवा, उद्योगपति और धार्मिक गुरु, विकास की विशाल मूर्ती बना कर
देश में तरक्की का ढिंढोरा बजाएं