मैं नदी सूख रही हूँ , घुट घुट के जी रही हूँ ...एक कविता
मैं नदी सूख रही हूँ ,
घुट घुट के जी रही हूँ ....2
वर्षा का पानी खेतों पर ,
बहा बहा के लाती थी !
और उनको मैं पानी का टैंक बनाती थी ...
कचड़ा वर्षों का बहा बहा ,
मै समुद्र में ले जाती थी !!
लाख करोडो जीवों को,
मैं स्नान कराती थी !!
बांध कर मैं बांध मजबूर हो रही हूँ ....
मैं नदी सुख रही हूँ,
घुट घुट के जी रही हूँ ...2
लाख करोडो पेंड पौधे,
जो मेरे किनारों में थे !
अरबों के हुए नष्ट वो भी ,
जो मेरे सहारों में थे !
मुझे काट कर खेत बनाये ,
मेरा स्वरुप बदले!
मैंने इनका क्या बिगाड़ा ,
जो मुझ पर रही नजरें !
मैं नदी सूख रही हूँ,
घुट घुट के जी रही हूँ
हर दिन की जरुरत पर मैं ,
पानी देती उनको !
पता नहीं की किस जन्म का बदला चुकाए मुझसे ,
मुझे नस्ट कर क्या पायें,
क्या कहूँ मैं इनसे !!