एक झूठी आस है ये चुनावी लोकतंत्र...एक कविता
हर एक वोट को आस है एक नए सवेरे की
संसद की दरकती दीवारो को आस है कुछ नये चेहरो की
टूटी झोपड़ी के साये में एक आस है आशियाने की
बोझिल होती आँखो में आस है मुठ्ठी भर अनाज की
खाली पड़े हाथों को आस है कुछ काम मिल जाने की
सदियों से तड़पती भूख को आस है पेट भर जाने की
दिल्ली की दहकती सड़को को आस है नये खरपतवारो की
बंद कमरो को आस है आवरू बच जाने की
पेट में फलते फल को आस है जिँदा पक जाने की
टूटते सपनों को आस है मुकाम मिल जाने की
सत्ता की हवाओं को आस है एक नये नेतृत्त्व की
दम तोड़ती व्यवस्था को आस है कुछ नये सुधार की
फाइलों में बंद अल्फाज़ो को आस है एक नये फ़साने की
बहते आंसुओ को आस है एक नये इंकलाब की
इस संविधान को आस है एक नये लिहाफ की
एक झूठी आस है ये चुनावी लोकतंत्र
एक झूठी आस है ये चुनावी लोकतंत्र