तुम्हारे मजदूर दिवस का मजदूर इतना सस्ता क्यो !
तुम्हारे मजदूर दिवस का मजदूर इतना सस्ता क्यो !
हर गली हर चौराहा यह खुद से पूछ्ता है
क्या तुम्हारे मुल्क मे भीं कोइ मजदूर बिकता है
ये श्रम का भी क्या अजीब धंधा है
यहाँ इंसान ही इंसान के हाथों बिकता है
तुम्हारे मुल्क मे रोटी इतनी सस्ती क्यो
कि थाली का झूठन हमारें पेट का निवाला बनता है
साहब और मजदूर का भी ये कैसा अटूट रिस्ता है
कि महलो के बीच हमारा बच्चा भूखा मरता है
तुम्हारे घर का कांच टूटे तो आवाज संसद तक उठती है
हमारी मौत पर एक आह तक नही निकलतीं
ये लोकतंत्र का भी क्या फलसफा है
लोक के नाम पर यहाँ तंत्र बिकता है
हमारे श्रम पर फल कोई और चखता है
ये जिस्म की आबरू का खेल कैसा
तुम्हारे घर का हर कोना परदे मे रहता है
और हमारे जिस्म का सौदा खुलेआम होता है
हर गली हर चौराहा यह खुद से पूछ्ता है
क्या तुम्हारे मुल्क मे भीं कोइ मजदूर बिकता है