नदी सूखी, बहस जारी, चल रही हैं नावें...
भूख नहीं सामने भोजन की थाली है
सम्मेलन है, कुर्सियां खाली है
पहने हैं गरुआ लिबास, भीतर शैतान का वास
किन्हें दे नववर्ष की बधाइयां, पडोसियों से चल रही है लडाइयां
रेगिस्तान बडा है
खिलखिलाती धूप खजूर का पेड खडा है
लेकर बैठे डिग्रियां हज़ार
पर सीखा नहीं हमने शिष्टाचार
किया दिन भर तर्क
क्या है फर्क
भूले हम सभ्य व्यवहार
याद है सिर्फ त्यौहार
मस्तिष्क गर्भ दिल में बबूल है
मगर कमरा वातानुकूल है
पडोसी से नहीं वास्ता
टेलीफोन पर घण्टों वार्ता
मरीज के हाथ में वैद्य की नाडी है
चरित्र अब द्रौपदी की साडी है
मजहब की उंची दीवार
मिलना हुआ अब दुष्वार
आलमारी में कानून की किताबें
नदी सूखी, बहस जारी, चल रही हैं नावें
सम्बुद्धि सिंह