मेरे सपनों को जानने का हक रे, क्यों सदियों से टूट रहे हैं...
Rajindra Khatri from Kanker has sent this song :
मेरे सपनों को जानने का हक रे
क्यों सदियों से टूट रहे हैं
इन्हे सजने का नाम नहीं
मेरे हाथों को ये जानने का हक रे
क्यों बरसों से खाली पडे हैं
इन्हें आज भी काम नहीं
मेरे पैरों को ये जानने का हक रे
क्यों गांव गांव चलना पडे रे
क्यों बस का निशान नहीं
मेरे भूख को ये जानने का हक रे
क्यों गोदामों में सडते हैं दाने
मुझे मुट्ठी भर धान नहीं
मेरी बूढी मां को जानने का हक रे
क्यों गोली नहीं सुई दवाखाने
पट्टी टांके का सामान नहीं
मेरे बच्चों को ये जानने का हक रे
क्यों रात दिन करे मजदूरी
क्यों शाला मेरे गांव नहीं