दो कविताएं -जीवित हैं मेरे अन्दर और कैसे बचेगी जान...
जीवित हैं मेरे अन्दर
वे नहीं रहे
किंतु मेरे लिये
वे केवल एक शरीर न थे
जो मिट जाता बिना कोई अपनी छाप छोड़े
वे अनवरत अपनी लय में चले
बिना अपनी कोई लीक तोड़े
अस्सी वर्षों के अपने जीवन दर्शन से भरपूर
अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से भरपूर
राह प्रशस्त करते हुये,
वह रहेंगे सदा जीवित मेरे अन्दर, एक कर्म योगी बन कर
जीवन के सिद्धांतों में सुन्दर स्वस्थ विचारों में, उच्चतम संस्कारों में
रक्त के अंतिम अंश तक
जीवन के अंतिम ध्वंस तक
कैसे बचेगी जान
मिट्टी से अम्बर से नदी से समन्दर से
लेने का सिलसिला चल रहा अज़ल से.
पर सोचा नहीं मगर,ये ज़मीं कभी अगर
खुद हो ग़ई बंजर तो
दरिया खुद ही हो गये सश्ना तो
हवा में आ ग़या यकायक ख़ला तो
न दाना होगा न पानी
न होगी हवा ताज़ी
पता नहीं उस वक्त, कैसे बचेगी जान
अभी तो चल रहा है करोबारे जहान
अभी तो बाकी है जिस्मों मे जान.
खुदेज़ा खानम जगदलपुर 9424281621