" वे डरते हैं ": कविता
” वे डरते हैं ”
वे छात्रों से नहीं डरते,
वे बेरोजगारों से नहीं डरते,
वे मजदूरों से नहीं डरते,
वे किसानों से नहीं डरते,
वे आदिवासियों से नहीं डरते,
वे जनता से भी नहीं डरते,
जिनके कंधे पर सवार रहते हैं,
जिनको लूट कर खाते हैं,
क्योंकि उनको दबाने,
पुलिस फौज जो बनाकर रखे हैं,
वे डरते हैं कवियों से लेखकों से,
वे डरते हैं सांस्कृतिक कर्मियों से कार्टूनिस्टों से,
वे डरते हैं सोशल मिडिया के पत्रकारों से,
वे डरते हैं अपंग साईं बाबा जैसे विचारवानों से,
वे डरते हैं बराबर राव जैसे विचारवानों से,
वे डरते हैं सुधा भारद्वाज के जैसे,
अनेकों विचारवान महिला पुरूषों से,
कहीं ये विचारवान लोग,
हमारे लूट रूपी राज सत्ता को नेस्तनाबूद कर,
अमीरी गरीबी खत्म कर,
समतामूलक राज न बना दे ।
” मजदूर ”