कॉमनवेल्थ गेम्स पर एक कविता
कभी गिरता है ब्रिज, कभी गिरती है सीलिंग
फिर भी मैनेजमेंट को नहीं है शर्म की फीलिंग
भारत का सम्मान क्यूं रक्खा है ताक पर
पट्टी पढी है क्या सरकार की आट पर
विदेशी कदम कदम पर भारत को कोसते हैं
और हम उनके भव्य इंतज़ाम की सोचते हैं !
पीडा उनको भी है जिनका निवास है मन बस्ती
क्या रक्खा है बनाने में झूठी हस्ती
क्या भूखे पेट कभी खेला है कोई
भूख के कारण तो आम जनता है रोई
जो रकम खेल पर बहाई जा रही है
कोई पूछ सकता है वो कहां से आ रही है
उनके कुछ टुकडों से न जाने कितनी ज़िंदगी ही संवर जाती
कितनो की जीवन नौका पसे भंवर से तर जाती
दुर्दशा